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Monday, June 19, 2017

ठहराव



















चलो कुछ दो चार पल रुक जाते है इस भीड मैं, इसी जगह,
देखते है कि कोई रुक के पूछता है ,
या फिर चलती गाडी की खिडकी से सिर्फ झाकता है,
दौडके के कोई हात पकडता है ,
या फिर छोड देता है हमे उसी राह पर,


इस भाग दौड मैं शायद बिछड गया था जो मकाम,
क्या फिर वो पुकरता है उसी चाहत से,
या फिर सिर्फ एक सिसकी सी भर देता है
हमारे वापस न आनेसे ,


रिश्ते जो बंद दरवाजो कि तरह चूप है,
क्या वो जग जायेंगे मेरे थमने से,
या फिर बिना कुछ कहे सुने निकल जायेंगे 
पीछे के दरवाजे से,


सबका आसमान वही तो था,
फिर बारिश कि बुंदे अलग कैसे हो गई,
ये काम आती थी जब लब्ज सुखेे पड जातें थे,
और रिश्तो को गिला करना होता था.


शुक्र इस बात का है कि फूल अभी तक
किराया नाही मांगते खुशबू का
वरना जो फुल कभी अपने थे 
वो पास से गुजरने पर थमा देते कागज कि पर्ची .....


जाने अंजाने इतने पेड खडे है राह मैं
उनकी अनगिनत टेहनिया झुलती है हवा मैं,
उसमे से एक टेहनी को तो याद होगी ,मेरी हथेली से पि हुई दो बुंदे....


अब ना गिला है ठहरने का और ना अफसोस है गुजरे लम्हो का,
सिर्फ ये चाहत है कि कोई यादों मैं बसे हुये घर से निकल के जालों को हटाये,
और खिडकी कि एक टुटी कांच से सुबह कि एक किरण अंदर झाक कर देखे,
मन हि मन मुस्काये और फिर लौट जाये अपने घर सुरज के साथ फिर लोटने के लिये.....!


                                                                                                   आनंद
                                                                                                  19 जून 2017