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Thursday, July 9, 2020

उगाचंच सहजंच :- "ख्वाहिशें"

उगाचंच सहजंच :- "ख्वाहिशें"


कही दूर एक पहाड़ पर, एक सुबह एक सफेदसी कली शरमाती हुई ,थोड़ीसी घबराई हुई सोच रही थी कि मैं फूल बन पाउंगी या नही...!
क्या ये जगह मेरा घर है ,या मैं कही फेके हुए पौधे का कोई हिस्सा थी और आज अचानक बहार बन गई ?
क्या है मेरा रिश्ता इस पहाड़ से , जमीन से ?
मैं बोझ हूँ या फिर बिना किसी मक़सद से मिली है मुझे जिंदगी ?
क्यो आणि किसको दिखाऊ मैं अपने रंग रूप को , अगर कोई बरसो गुजरा नही इन रास्तों पर ?
ऐसे अनगिनत सवाल जब उसके मन मे चल रहे थे,बड़ी मायूस दिख रही थी,
 तभी एक उड़ता हुआ, या फिर बहता हुआ कहिये, 'पंख का फूल' उसे देख बोला, किसका इंतेजार कर रही हो ऐ खूबसूरत कली बन जाओ अब फूल और पूरी करले अपनी ख्वाहिश...!
कली जग गई, समझ गई और खुल गई उसकी आंखें, जिंदगी सिर्फ किसी दूसरे के लिए नही होती , खुदकी ख्वाहिशों को पूरी करने के लिए भी होती है....
खिलना मेरी ख्वाहिश हो तो मुझे किसीका इंतेजार करने की क्या जरूरत,
इतना सोचते ही, अचानक खुल गई उसकी हलकी पत्तों की पंखुड़िया और खिल गई उसकी दुनिया....!
किसीने सच कहा है, ख्वाहिशों का होना जरूरी है वरना जिंदगी गुलजार कैसे बनेगी.....!



आनंद
10 July 2020

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