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Thursday, August 25, 2016

नज्म : आशियाना

हिंदी मध्ये नज्म वगैरे लिहावी इतकं माझं हिंदी अर्थातच चांगलं नाही. पण एक वेगळा प्रयत्न म्हणून हा प्रयोग. कालच इथे मोठा भूकंप झाला, शे दोनशे माणसं बघता बघता नाहीशी झाली. डोंगरात वसलेलं गाव दिसेनासं झालं आणि नुसते दगड विटांचे ढिगारे दिसू लागले. बेघर झालेली लोकं आणि त्यांची उध्वस्त झालेली घरं म्हणजेच त्यांचे ते आशियाने . एका पक्ष्याचे नजरेतून हे पाहिलं आणि ओळी सुचत गेल्या.




खिडकीसे झाक कर डुबता सुरज देख रहा था मै , तभी एक कोने मै वो नन्हासा पंछी नजर आया.

कभी नीचे झुककर तो कभी नजर आसमा कि तरफ देखता रहा वो , जैसा कोई गेहरा साया ...

उससे आंख मिलाकर मैने कहा , अंधेरा घेर रहा है , पेड की टेहनी के उपर तेरा आशिया राह देख रहा होगा,
जा उड़ जा अपने आशियाने मै....


मुस्कुराके नजर छुपाते हुये उसने कहा, रास्ता याद नाही आ राहा है, जाने कहा जाना था, राहें भी धोका देंगी ऐसा तो नहीं सोचा था.
फिर मुडकर वो बोलता रहा, कभी आसमां से  कभी जमीन से ,
मै सुनता रहा, जानते हुए की शायद कुछ गहरा जख्म हुआ है उसे ...!
  
कल जिस पतें पर मेरा आशियॉं था ,वहा तो कुछ अलग ही नजारा है ,
ना वो राहें  दिखती है, ना वो नज़ारे दिखते है, कुछ तो पत्थर के ढेर पड़े है गाव मै,
ना जाने कौन छोड़ गया है पीछे अपना सामान.....

आधा अधुरा सा है सब कुछ, ना वो आवाज है ना वो बातों की गुफ्तगू ,
इतनी बैचैनी तो न थी मेरे आशियाने मै कभी , भले लब्ज़ कभी रूठे हो ...

सुर तो हमेशा बसते थे गलियोमै , उन्हिसे फिर शामे रंगीन हुआ करती थी ,
आज तो सिर्फ अंधेरा है, जाने वो खिड़की के कोने मै जलते हुए दियेमें “रूह” क्यों नहीं है,
बहते हुए हवा ने तो शायद बुझाया नहीं उसे,  या फिर किसीको आज वक्त का एहसास नहीं है...

लोग भी तो नहीं है आज, शायद कही गए है..
मैंने सोचा छत के ऊपर बैठकर थोडा इंतजार करू , शायद कोई गुजरेगा इस राह से ,
पर ना वो छत अभी वहां  है, ना मंजिलो को पोहोचाने वाले रास्ते ....

कुछ तो गुम हुआ है आज मेरा, नजारों का रंग है , या वादियोंकी वो  सरसराहट ,
जिससे कभी होती थी बाते बरसात की या फिर ठिठूरती  सर्दीयोकी ,

फिर कही रंग बदलते पेड़ खुश होके हम पंछियों को बुलाते थे , अपनी टहनी  पर खेलने,
फिर कुछ दिनों मै गिरा देते थे उन पत्तो को जमिन पर, और खुद खड़े रहते थे नए पत्तो के ख्वाब देखते हुए धुपमें ...!
बादल फिर कभी छॉंव  बन जाते थे उस उजड़े हुए पेड़ की ,

और फिर बरसती थी बूंदे  जो खुशबु संग लती थी मिटटी की, बाद मै पता चला इसे कहते है मौसम, हमें तो लगता था ये तो उस पेड़ की ये जिंदगी है , पर ये तो पूरी कौम की कायनात थी....!

आज वही ढूँढता रहा सेहरामे , पर कुछ ना मिला, कही दूर से एक माँ  आंसू बहाती नजर आई ,
फिर पता चला उसका नन्हा कही गम हुआ है उन पत्थरो के ढेर मै,
फिर मैंने गौर से देखा उन पत्थरो को , और मुझे नजर आई वो खिड़की की एक टूटी कांच, कही बिखरे दरवाजे तो कही पुराने तस्वीरों मै छुपा बचपन, तो कही मुरझाए फुलोकी एक टहनी  ..!
वही ढेर मै दब गए थे वो लब्ज , जो जिन्दा करते थे उस वादी को, और फिर जिंदगी चलने लगती थी सूरज के साथ हाथ मिलाकर ...

ये विराना तो न था आशियाँ मेरा , इसलिए भूल गया हूँ रास्ता अब मंजिल का जानबुजकर, शायद भुलनेपर फिरसे ख्वाब जिन्दा हो और सुबह होते ही नजर आ जाये वही पुराना आशियाना......!

तब तक बैठता हूँ यही पे, अंधेरा वैसे तो सब जहग है, रात गुजारने के लिए दिये  की जरुरत तो नहीं है अभी,
चाँद भी तो छुपा है डरकर  , और सितारों को बादल ने झॉंक  दिया है, शायद वो भी न देख सकते होंगे वो बिखरा हुआ आशियाँ आसमां से ,
आज जरुरत है ख्वाब की जो सच हो जाये दिन के उजाले मै और संवर  जाये मेरा आशियाँ फिर से बसंत की बहार में ....!


आनंद
२५ ऑगस्ट २०१६ 


Note : Grammatical correction helped by Gajanan Chavan :-) 

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